Wednesday, April 22, 2009

बदल गए गांधी के मायने...

गांधी यानी लाठी के सहारे तेज चलने का जोश.और बिना हिंसा निरंतर विरोध करने की कला .यह बीते दौर के वो गांधी हैं जिनकी विचारधारा आज नोटों पे छपी उनकी तस्वीर की तरह मुर्दा हो चुकी है.चलिए,यह तो बीते कल की बात है .बहरहाल आज सियासत में दो और नए गांधी हैं.यह दोनों युवा हैं,दोनों के सर पे बाप का साया नहीं है.दोनों माँ के आँचल तले सियासत का पाठ सीख रहे हैं.यह दोनों रिश्ते में भाई हैं.फर्क सिर्फ इतना है कि एक अपनी पहचान बनाने में थोडा बहुत सफल हो गया है तो दूसरा मजहबी भाषणों के सहारे अभी राजनैतिक जमीन टटोल रहा है.
पहले बात सफ़ेद कुरता और विदाउट फ्रेम चश्मा पहने वाले राहुल की करते हैं.इन्हें दलित टूरिज्म का बड़ा शौक है.इसलिए यह आये दिन किसी ने किसी दलित के झोपडी में पहुँच जाते हैं,रुकते हैं,खाते हैं,परेशानी पूछते हैं और उस गरीब की उम्मीदों को पंख लगा के चले जाते हैं.कहने वाले हमें इन्हें दलित गांधी भी कहते हैं मगर अफ़सोस यह दलितों को लुभा तो लेते हैं पर उस पुराने गांधी की तरह उनका दर्द नही बाँट पाते.अभी हाल में ही राहुल कमलावती नामक एक वृद्ध दलित महिला के घर गए,खाना खाया और उनकी परेशानी पूछी तो उसने पेंशन ने मिलने की शिकायत की.कांग्रेस का इतना बड़ा नेता खामोशी से उसकी परेशानी सुनता है और उसकी चर्चा मीडिया में भी करना नही भूलता.पर दिक्कत का समाधान करना भूल जाता है.शायद दलित टूरिज्म राहुल गांधी का शगल है जिसे बरक़रार रखने के लिए दलित की झोंपडी और उसकी परेशानियों दोनों का बरक़रार रहना जरूरी है.

जो भी हो,राहुल ने अपनी इस अदा से अपनी लिए थोडी बहुत ज़मीन तो बना ही ली है मगर आश्चर्य तो लाल कुरता पहन माथे पे लम्बा टिका लगे हिंदुत्व के नए अवतरण वरुण की बातें सुनकर होता है .एक लम्बे अरसे से आर एस एस की सदस्यता के लिए संघर्ष कर रहे वरुण जब एक समुदाए विशेष को अपशब्द कहते हैं और आस पास इकठ्ठा कुछ युवा ताली मार उसे प्रोत्साहित करते हैं तो पहले वह खुद भी अचंभित होते है और उनकी पार्टी भी.मुद्दा तूल पकड़ता देख पहले पार्टी बैकफुट पर जाती है मगर राजनीतिक गणित समझते ही समर्थन में वरुण को पार्टी का पोस्टर बॉय बना देती है.सियासात में सब मौका परस्त होते हैं इसलिए मायावती भी २० फीसदी मुसलमान मतदाताओं के वोट के लिए पहले वरुण को रैली करने देती हैं फिर रासुका लगा मुसलमानों का दिल जीत लेती हैं.दाँव इतना सही था की सपा मजबूरन वरुण के समर्थन में रासुका को गलत कहती है तो केंद्र में बैठी कांग्रेस रासुका से कोई लेना देना न होना कहके अपना पल्ला झाड़ लेती है.गिराफ्तारी से पहले वरुण का समर्थ और लोगों का हुजूम देख भाजपा प्रमुख के आँखों में चमक आती है और २००६ के उपचुनाव में विदिशा से टिकट न दिए जाने वाले वरुण की तुलना जय प्रकाश नारायण से कर देते हैं.पार्टी प्रमुख का यह समर्थन अरुण की इस उग्रता को वैधता प्रदान करती है और वो सीना चौडा कर जेल चले जाते हैंऔर पीछे पुलिस और जनता के बीच ८ घंटों का संघर्ष छोड़ जाते हैं.
ड्रामा अब तक जारी है.गाली देकर नेता बने वरुण की सुरक्षा के लिए अब प्रश्न उठने लगे हैं.वास्तव में सियासत में सिर्फ एक चीज अच्छी होती है कि यहाँ रिश्तों में गले लगाने की गुंजाईश लाख तकरारों के बाद भी बनी रहती है .इसलिए यहाँ विरोध जायज़ है.बहरहाल इस युग के युवा गांधी आज लोकतंत्र के सबसे बड़े गेम शो में शिरकत कर रहे हैं. और दोनों में कौन सफल बनेगा या जीतेगा ,यह तो वक़्त बताएगा.पर इनसे बदलाव की उम्मीद करना बेमानी है.