Saturday, February 13, 2010

जिन्दगी के ख्वाब और ख्वाबों की जिन्दगी

रात के सढे तीन बजे थे. अचानक किसी चीज के गिरने कि एक जोर से आवाज आती है और मेरी आँख खुलती है.कमरे कि लाइट जल रही थी और मेरी साँसे सामान्य से थोडा तेज थी. चेरहे पर कुछ पसीना भी था और दिल में थोडा डर भी. हिम्मत कर के दरवाजा खोला बाहर देखा कोई नही था. घर के दुसरे हिस्सों में भी नजर दोडाई पर सहमे ख्याल के सिवा कुछ नजर नही आया. वापस आया तो अचानक नजर कमरे में टंगे सीसे पर गयी और यकीन हुआ ये कोई ख्वाब था. आज भी मेरी आँख रोज कि तरह कुर्सी पर ही लग गयी थी और बिस्तर पर कुछ पुरानी किताबें और कपड़ो का ढेर आराम फार्म रहा था. सायद डर ने नींद उड़ा दी थी सो कपड़ो को कुर्सी पर फेंक और किताबे किनारे खिसका मैंने अपने लिए बेड पर ६/३ कि जगह बना ली. बिस्तर निश्चय ही कुर्सी से काफी सुकून देह था पर नींद अब आँखों से इतनी दूर हो चुकी थी जितना चाँद धरती से है. ऐसे में कुछ पुराने ख्याल फिर सपनो कि तस्वीर बनाने लगे और गहरी रात के सन्नाटों में घडी के काँटों की आवाज की तरह साफ़ मेरी तन्हाई मुझे डराने लगी कि कही कमरे की इस चार दिवारी में मैं पाचवी दीवार न हो जाऊ......
अचानक घबराहट इतनी बढ़ गयी की खुली आँखों के सामने जिन्दगी का फ्लैशबैक दिखने लगा. सबसे पहले आँखों के सामने यारो का झुंड आया. जिसने मुझे मेरी जिन्दगी का सबसे खुबसुरत वक़्त दिया. फिर भविष्य बनाने और सपने पूरा करने का वक़्त. जब आँखों में ढेर सारी उमीदें और रोम-रोम में कुछ कर गुजरने के पौध लगे दिखे. फिर वो वक़्त जब दोस्त अपनी जिन्दगी में व्यस्त और सपने कही न कही महज सपने लगने लगे. और इन सब के बीच पल-पल बढ़ता तनाव और अकेलापन. जिन्दगी अब काफी अलग लग रही थी......
........अचानक ख्यालो के बादल साफ़ होते है और वास्तविकता दिमाग को सक्रीय करती है तो नजर फिर वक़्त क पिटारे पर पड़ती है जो भोर के ५.३० बजा चुकी होती है. आँखों में भी कुछ कड़वाहट महसूस होती है. जिन्दगी के ख्वाब और ख्वाबों कि जिन्दगी की जंग के बीच कब ख्याल फिर सपने बन जाते हैं पता नही चलता...